केवल राजस्व का नुकसान ही नहीं बल्कि हम बहुमूल्य राष्ट्रीय संपत्ति भी गँवा रहे हैं...जो हमारे पास दुर्लभ स्पेक्ट्रम के रूप में है |
आजकल हो रहे बैंड के घोटालो पर मेरी एक छोटी सी लेख:
बैंड क्या हैं?
बैंड एक ऐसा परीछेत्र हैं जिसके भीतर रहकर
आपको कोई TRANSMISSION करना होता हैं | और यह बैंड Federal Communications Commission (FCC) द्वारा निर्धारित किया जाता हैं | यह एक ऐसी परिधि होती हैं जिसके भीतर रहकर ही SPACE SATTELITES के ट्रांसपोंडर बिठाये जाते हैं | यह ट्रांसपोंडर सरकार द्वारा अपने रिसर्च सेंटर में काफी बड़ी लागत से शोध द्वारा बनाए जाते हैं | फिर यह ट्रांसपोंडर सरकार किसी सरकारी/गैर सरकारी कंपनियों को किराये पर उपलब्ध कराती हैं |
एंट्रिक्स और देवास के बीच दांव पेंच:
एंट्रिक्स कॉरपोरेशन लिमिटेड की स्थापना भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) की व्यापारिक शाखा के रूप में सितम्बर 1992 में की गई थी. एंट्रिक्स भारत सरकार के अंतरिक्ष विभाग के अधीन काम करती है. इसे मिनीरत्न का दर्जा प्राप्त है. एंट्रिक्स इसरो द्वारा तैयार स्पेस प्रॉडक्ट और तकनीकी सलाह को व्यावसायिक फायदे के लिए बेचती है. इसरो द्वारा तैयार तकनीक के व्यावसायिक इस्तेमाल का काम भी एंट्रिक्स के पास है. देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना वर्ष 2004 में की गई थी. देवास का मुख्यालय कर्नाटक की राजधानी बंगलूरु में है. देवास मल्टीमीडिया के साथ एंट्रिक्स ने ही एस बैंड स्पेक्ट्रम के लिए 28 जनवरी 2005 को समझौता किया था|
आरोप:
अंतरिक्ष विभाग ने एस बैंड स्पेक्ट्रम को 70 मेगाहर्टज को देवास मल्टीमीडिया को एक हजार करोड़ में आवंटित किया. जबकि इसकी वास्तविक कीमत करीब दो लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया| इस समझौते के तहत देवास मल्टीमीडिया को कथित तौर पर 20 साल के लिए दुलर्भ एस-बैंड स्पेक्ट्रम का 70 मेगाहर्ट्ज उपलब्ध कराया जाएगा।
हमारी एक दलील:
हम 5-जी स्पेक्ट्रम की बात कर रहे हैं, जो गीगाहर्ट्ज से संबद्ध है। हाल ही में बीएसएनएल और एमटीएनएल को 12487 करोड़ रुपए में सिर्फ 20 मेगाहर्ट्ज आवंटन किया गया, लेकिन 70 मेगाहर्ट्ज इस निजी परिचालक को दे दिया गया और उससे सरकार केवल 1000 करोड़ रुपए ले रही है।
अगर हम यूँही अपने बैंड का समझौता करते रहेंगे तो हमारे रिसर्च और विकास की नीव कैसे मजबूत होगी
आजकल हो रहे बैंड के घोटालो पर मेरी एक छोटी सी लेख:
बैंड क्या हैं?
बैंड एक ऐसा परीछेत्र हैं जिसके भीतर रहकर
आपको कोई TRANSMISSION करना होता हैं | और यह बैंड Federal Communications Commission (FCC) द्वारा निर्धारित किया जाता हैं | यह एक ऐसी परिधि होती हैं जिसके भीतर रहकर ही SPACE SATTELITES के ट्रांसपोंडर बिठाये जाते हैं | यह ट्रांसपोंडर सरकार द्वारा अपने रिसर्च सेंटर में काफी बड़ी लागत से शोध द्वारा बनाए जाते हैं | फिर यह ट्रांसपोंडर सरकार किसी सरकारी/गैर सरकारी कंपनियों को किराये पर उपलब्ध कराती हैं |
एंट्रिक्स और देवास के बीच दांव पेंच:
एंट्रिक्स कॉरपोरेशन लिमिटेड की स्थापना भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) की व्यापारिक शाखा के रूप में सितम्बर 1992 में की गई थी. एंट्रिक्स भारत सरकार के अंतरिक्ष विभाग के अधीन काम करती है. इसे मिनीरत्न का दर्जा प्राप्त है. एंट्रिक्स इसरो द्वारा तैयार स्पेस प्रॉडक्ट और तकनीकी सलाह को व्यावसायिक फायदे के लिए बेचती है. इसरो द्वारा तैयार तकनीक के व्यावसायिक इस्तेमाल का काम भी एंट्रिक्स के पास है. देवास मल्टीमीडिया प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना वर्ष 2004 में की गई थी. देवास का मुख्यालय कर्नाटक की राजधानी बंगलूरु में है. देवास मल्टीमीडिया के साथ एंट्रिक्स ने ही एस बैंड स्पेक्ट्रम के लिए 28 जनवरी 2005 को समझौता किया था|
आरोप:
अंतरिक्ष विभाग ने एस बैंड स्पेक्ट्रम को 70 मेगाहर्टज को देवास मल्टीमीडिया को एक हजार करोड़ में आवंटित किया. जबकि इसकी वास्तविक कीमत करीब दो लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया गया| इस समझौते के तहत देवास मल्टीमीडिया को कथित तौर पर 20 साल के लिए दुलर्भ एस-बैंड स्पेक्ट्रम का 70 मेगाहर्ट्ज उपलब्ध कराया जाएगा।
हमारी एक दलील:
हम 5-जी स्पेक्ट्रम की बात कर रहे हैं, जो गीगाहर्ट्ज से संबद्ध है। हाल ही में बीएसएनएल और एमटीएनएल को 12487 करोड़ रुपए में सिर्फ 20 मेगाहर्ट्ज आवंटन किया गया, लेकिन 70 मेगाहर्ट्ज इस निजी परिचालक को दे दिया गया और उससे सरकार केवल 1000 करोड़ रुपए ले रही है।
अगर हम यूँही अपने बैंड का समझौता करते रहेंगे तो हमारे रिसर्च और विकास की नीव कैसे मजबूत होगी
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